भस्त्रिका प्राणायाम में सांस लेने व छोड़ने की गति अधिक तेजी से करनी होती है। संस्कृत में भस्त्रिक का अर्थ धमनी होता है। योग में इसका नाम भस्त्रिका इसलिए रखा गया है, क्योंकि इसमें व्यक्ति की सांस लेने व छोड़ने की गति लौहार की धमनी की तरह होती है। जिस प्रकार एक लोहार धौकनी की सहायता से तेज हवा छोडकर उष्णता निर्माण कर लोहे को गर्म कर उस मे की अशुद्धता को दूर करता है, उसी प्रकार भस्त्रिका प्राणायाम में हमारे शरीर और मन की अशुद्धता को दूर करने के लिए धौकनी की तरह वेग पूर्वक अशुद्ध वायु को बाहर निकाला जाता है और शुद्ध प्राणवायु को अंदर लिया जाता हैं। इसीलिए इसे अंग्रेजी में ‘Bellow’s Breath’ भी कहा जाता हैं।  इस प्राणायाम से प्राण व मन स्थिर होता है और कुण्डलिनी जागरण में सहायक होता है।

इस प्राणायाम के अभ्यास से योगी अपने विचलित बल को पुन: वाष्प में परिवर्तित कर दिया करते थे। भस्त्रिका-प्राणायाम का प्रयास करने से पहले, नाड़ी-शोधन प्राणायाम के चारों स्तरों में से प्रत्येक का अभ्यास कम से कम तीन महीने तक कर लिया जाना चाहिए। 

भस्त्रिका प्राणायाम का अभ्यास 2 विधियों द्वारा किया जाता है

  1. पहली विधि : इसके अभ्यास के लिए पद्मासन या सुखासन की स्थिति में बैठ जाएं। इसके बाद अपने बाएं हाथ की हथेली को नाभि के पास ऊपर की ओर करके रखें। अब दाएं हाथ के अंगूठे को नाक के दाएं छिद्र के पास लगाएं और मध्यम व तर्जनी को बाएं छिद्र के पास लगाकर रखें। इसके बाद नाक के दाईं छिद्र को बंद कर बाएं छिद्र से आवाज के साथ तेज गति से सांस बाहर निकालें और फिर तेजी से लें। इस क्रिया में पेट को फुलाएं और पिचकाएं। फिर बाएं छिद्र को बंद करके दाएं से आवाज के साथ सांस बाहर निकालें और फिर तेजी से सांस अंदर लें। फिर दाएं छिद्र को बंद करके बाएं से सांस को आवाज के साथ बाहर निकालें। इस तरह 15 से 20 बार करने के बाद दोनों छिद्रों से सांस लें। इसके बाद बाएं छिद्र को बंद करके दाएं छिद्र से धीरे-धीरे सांस छोड़ें। अब बाएं छिद्र को बंद कर दाएं छिद्र से तेज गति से सांस को अंदर लें और फिर छोड़ें। इसे 10 से 15 बार करने के बाद पहले की तरह ही सांस लें और छोड़ें। इसके बाद दाएं को बंद कर बाएं से धीरे-धीरे सांस बाहर निकालें। इसके बाद दोनों छिद्रों से तेजी से आवाज के साथ सांस लें और छोड़ें। इस तरह इसे 10 से 15 बार करें। फिर सांस अंदर लेकर जितनी देर तक सम्भव हो सांस को रोककर रखें और फिर धीरे-धीरे दोनों छिद्रों से सांस को बाहर छोड़ें। इन तीनों का अभ्यास 10 से 15 बार करें और धीरे-धीरे इसका अभ्यास बढ़ाते हुए 50 बार तक करने की कोशिश करें। इस क्रिया में सांस लम्बी व गहरी तथा तेज गति से लेते हैं। ध्यान रहे कि आवाज के साथ सांस छोड़े और बिना आवाज के ही सांस लें। सांस लेने व छोड़ने के साथ-साथ ही पेट को पिचकाएं और फुलाएं। इस तरह इस क्रिया को 3 से 5 मिनट तक करें।
  2. दूसरी विधि : इस आसन को करने के लिए पद्मासन में बैठ जाएं और दोनों हाथों को दोनों घुटनों पर रखें। इसके बाद तेजी से नाक के दोनों छिद्रों से सांस ले और बाहर छोड़े। फिर गहरी सांस लें और जितनी देर सम्भव हो सांस को रोककर रखें और जालंधर बंध करें। कुछ समय तक उसी अवस्था में रहें। इसके बाद सांस छोड़ दें। इस तरह इस क्रिया को 3 से 5 बार करें। इस क्रिया में आंखों को बंद कर ´ओम´ का ध्यान करें और मन में अच्छे विचार रखकर ध्यान करें।

भस्त्रिका प्राणायाम में कृपया ध्यान रहे – विशेष 

  • सांस अंदर लेते समय पेट को अंदर करके रखें। इसके अभ्यास के क्रम में मक्खन , घी तथा दूध की मात्रा अधिक खानी चाहिए। प्राणायाम के अभ्यास के समय आंखों को बंद कर लें और सांस लेने व छोड़ने के क्रम में ´ओम´ का जाप करें और मन में विचार व चिंतन करें। इस क्रिया को सर्दी के मौसम में 3 बार और तेज गर्मी के मौसम में एक बार करें।

भस्त्रिका प्राणायाम में आवश्यक सावधानी

  • गर्मी के दिनों में प्राणायाम का समय कम कर देना चाहिए और अभ्यास के क्रम में सांस लेने में कठिनाई हो तो पहले जल नेति से नासिका ग्रंथि को साफ करें। अभ्यास के समय आंखों के आगे अंधेरा छाना, पसीना अधिक आना या चक्कर आना या घबराहट होने पर अभ्यास को रोक दें। उच्च रक्तचाप व हृदय रोग के रोगी को इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए। जिसकी दोनों नासिका छिद्र ठीक से न खुल रहे हों तो बारी-बारी से दोनों नासिका छिद्रों से सांस ले और छोड़ें और अंत में दोनो से सांस ले और छोड़ें। इस प्राणायाम का अभ्यास 3 से 5 मिनट तक करें।
  • इसका पर्याप्त लम्बे समय तक अभ्यास कर चुकने के बाद और योग-गुरु (प्रशिक्षक) से विचार-विमर्श कर लेने के पश्चात् ही इसके चक्रों की संख्या में वृद्धि की अनुमति दी जा सकती है। इस व्यायाम का अभ्यास तेज दमा, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप या ज्वर होने पर न करें।

भस्त्रिका प्राणायाम से सैकडो रोगों में लाभ

  • यह प्राणायाम कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करता है। इससे जठराग्नि तीव्र होती है, स्नायु तंत्र मजबूत बनता है तथा यह अजीर्ण , कब्ज, वायु विकार आदि रोगों को नष्ट करता है। इसका अभ्यास करने से सर्दी-जुकाम, एलर्जी, सांस रोग, दमा, पुराना नजला, साइनस आदि सभी रोग दूर होते हैं।
  • यह हृदय और मस्तिष्क को शुद्ध कर शक्तिशाली बनाता है। यह फेफड़ों को मजबूत बनाकर फेफड़े के सभी रोग और क्षय (टी.बी.) को नष्ट करता है। इससे गले के रोग जैसे थायराइड व टान्सिल आदि खत्म होते हैं।
  • यह त्रिदोष (वात, कफ, पित्त) के विकारों को दूर कर इन्हें संतुलित रखता है। इससे खून साफ होता है और शरीर के विषाक्त, विजातीय द्रव्य बाहर निकलते हैं। यह स्त्री-पुरुष दोनों के लिए लाभकारी है तथा यह सभी पौरुष कमजोरी वाले रोगों को दूर करता है। इससे पेट के कीड़े खत्म होते हैं तथा मधुमेह का रोग खत्म होता है। इसके अभ्यास से मंदाग्नि का रोग दूर होता है, मोटापा कम होता है तथा नासिका व छाती के सभी रोग खत्म होते हैं। यह पैन्क्रियाज ग्रंथि को सुचारू रूप से कार्यशील बनाता है।